बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में जहां राजनीतिक दल जीत की रणनीति बना रहे हैं, वहीं टिकट वितरण में पारिवारिक समीकरणों ने सबका ध्यान खींचा है। इस बार नेताओं ने न केवल अपने प्रभाव क्षेत्र में टिकट तय किए, बल्कि अपने परिवार के सदस्यों को भी राजनीतिक मैदान में उतार दिया है।
जानकारी के अनुसार —
- उपेन्द्र कुशवाहा ने अपनी पत्नी को टिकट दिया,
- जीतन राम मांझी ने अपनी बहू को प्रत्याशी बनाया,
- मांझी जी ने अपनी समधन को भी टिकट देकर चर्चा बटोरी,
- और चिराग पासवान ने अपने भांजे को मौका देकर पारिवारिक राजनीति का एक और उदाहरण पेश किया।
दिलचस्प बात यह है कि ये सभी नेता स्वयं को दलितों और पिछड़ों की राजनीति के प्रतिनिधि बताते हैं। लेकिन अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या आरक्षण और सामाजिक न्याय के नाम पर चलने वाली राजनीति धीरे-धीरे ‘परिवार आरक्षण’ में तब्दील होती जा रही है?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह प्रवृत्ति भारतीय लोकतंत्र में एक नई चुनौती पेश कर रही है, जहां सामाजिक न्याय की लड़ाई अब वंश और रिश्तेदारी के समीकरणों में उलझती जा रही है।
बिहार की राजनीति में रिश्तों का यह नया गणित एक बार फिर साबित कर रहा है कि सत्ता की राह में परिवार ही सबसे बड़ा संगठन बनता जा रहा है — चाहे दल कोई भी हो, विचारधारा कोई भी।
न्यूज़ फैक्ट ख़बर की पुष्टि नहीं करता पर चर्चा जोरों पर है।



