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जयंती पर विशेष -लोकनायक भिखारी ठाकुर: लोकनाट्य में स्त्री और दलित चेतना के अग्रदूत-डॉ0 अमित रंजन

भिखारी ठाकुर भारतीय लोकनाट्य के ऐसे युगपुरुष हैं, जिन्होंने मंच को समाज का दर्पण और जनता की आवाज़ बनाया। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और मानवीय संवेदना को उन्होंने जिस सहजता से लोकभाषा में ढाला, वह उन्हें कालजयी बनाता है। वे केवल लोक कलाकार नहीं, बल्कि लोकचेतना के महान रचनाकार थे—जिनकी विरासत आज भी समाज को सोचने और बदलने के लिए प्रेरित करती है।

भिखारी ठाकुर (1887–1971) हिंदी–भोजपुरी लोकसंस्कृति के ऐसे अप्रतिम लोक कलाकार थे, जिन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहा जाता है। वे केवल नाटककार, गीतकार और अभिनेता ही नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना के सजग प्रहरी थे। औपचारिक शिक्षा से वंचित रहने के बावजूद उन्होंने लोकभाषा और लोकमंच के माध्यम से स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श और श्रमजीवी समाज के प्रश्नों को जिस निर्भीकता और संवेदनशीलता से उठाया, वह उन्हें भारतीय लोकनाट्य परंपरा में अद्वितीय बनाता है।

डॉ0 अमित रंजन द्वारा निर्देशित “विदेशिया” नाटक का एक भाव प्रवण दृश्य अर्चिता माधव (प्याiरी सुन्दरी), प्रेमचंद रंगशाला, पटना

भिखारी ठाकुर का लोकनाट्य संसार

भिखारी ठाकुर ने अपनी रचनाओं के लिए भोजपुरी लोकभाषा को माध्यम बनाया और नाच-नाटक (लौंडा नाच) की परंपरा को सामाजिक संवाद का सशक्त मंच बनाया। उनके प्रमुख नाटकों में—

  • बिदेसिया
  • बेटी बेचवा
  • गबरघिचोर
  • पुतोहू की करुणा
  • कलियुग प्रेम
  • ननद-भौजाई

विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इन नाटकों में प्रवास की पीड़ा, पारिवारिक विघटन, स्त्री शोषण, सामाजिक कुरीतियाँ और नैतिक प्रश्न प्रमुखता से उभरते हैं। ‘बिदेसिया’ तो आज भी पूर्वी भारत के प्रवासी समाज की व्यथा का प्रतीक माना जाता है।

स्त्री विमर्श: लोकमंच से उठी स्त्री की आवाज़

भिखारी ठाकुर के नाटकों में स्त्री केवल करुण पात्र नहीं, बल्कि सचेत और प्रतिरोधी स्वर के रूप में उपस्थित है।
‘बेटी बेचवा’ में वे दहेज प्रथा और निर्धनता के नाम पर बेटियों की खरीद-फरोख्त पर तीखा प्रहार करते हैं।
‘गबरघिचोर’ में स्त्री की अस्मिता, विवाह संस्था और पुरुष वर्चस्व के प्रश्नों को लोकहास्य के माध्यम से गहरी गंभीरता के साथ उठाया गया है।

उस दौर में, जब स्त्रियों की पीड़ा पर खुलकर बोलना असामान्य था, भिखारी ठाकुर ने स्त्री के अधिकार, उसकी स्वतंत्र इच्छा और सामाजिक न्याय की बात कही। लोकनाट्य के मंच से यह स्त्री-विमर्श अपने आप में क्रांतिकारी था।

दलित विमर्श और श्रमजीवी चेतना

भिखारी ठाकुर स्वयं सामाजिक रूप से वंचित वर्ग से आते थे। यही कारण है कि उनके नाटकों में दलित, पिछड़े और श्रमिक वर्ग की पीड़ा प्रामाणिक रूप में अभिव्यक्त होती है।
उनकी रचनाओं में जातिगत भेदभाव, आर्थिक शोषण और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध मौन नहीं, बल्कि सशक्त सवाल दिखाई देते हैं।

वे किसी वैचारिक घोषणा के बजाय जीवन के अनुभवों के जरिए दलित चेतना को सामने लाते हैं। उनका लोकनाट्य मंच उन लोगों का मंच बनता है, जिनकी आवाज़ मुख्यधारा के साहित्य में अक्सर अनुपस्थित रहती है।

समकालीन प्रासंगिकता

भिखारी ठाकुर की रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने समय में थीं।
प्रवास, बेरोज़गारी, स्त्री हिंसा, सामाजिक असमानता और सांस्कृतिक विस्थापन जैसे मुद्दे आज भी समाज के सामने मौजूद हैं। डिजिटल युग में भी ‘बिदेसिया’ की पीड़ा और ‘बेटी बेचवा’ की टीस समाप्त नहीं हुई है।

आज जब लोकभाषाओं और लोककलाओं को पुनः पहचान मिल रही है, भिखारी ठाकुर का रचनात्मक योगदान हमें यह सिखाता है कि लोकसंस्कृति केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का औज़ार भी हो सकती है।

निष्कर्ष

भिखारी ठाकुर भारतीय लोकनाट्य के ऐसे युगपुरुष हैं, जिन्होंने मंच को समाज का दर्पण और जनता की आवाज़ बनाया।
स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और मानवीय संवेदना को उन्होंने जिस सहजता से लोकभाषा में ढाला, वह उन्हें कालजयी बनाता है।
वे केवल लोक कलाकार नहीं, बल्कि लोकचेतना के महान रचनाकार थे—जिनकी विरासत आज भी समाज को सोचने और बदलने के लिए प्रेरित करती है।

जयंती पर अन्तर्राष्ट्रीय नाटककार राय बहादुर भिखारी ठाकुर को शत् शत् नमन।

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