छपरा 21 जुलाई 2024। शिष्य कैसे बना जाय, यह गुरु-शिष्य परंपरा की सबसे बड़ी साधना है चूंकि शिष्य बनना सबसे कठिन होता है। मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, यह इसलिए कहा गया है क्योंकि देवता वही होता है जो सिर्फ देता है। ये तीनों सिर्फ और सिर्फ देते हैं इसलिए इन्हें हमारे प्राचीन ग्रन्थों में देवता कहा गया है। जयप्रकाश विश्वविद्यालय में गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर गुरु-शिष्य परंपरा विषयक व्याख्यानमाला में व्याख्यान देते हुए वक्तागणों ने कहा।
आंतरिक गुणवत्ता आश्वासन प्रकोष्ठ और एनएसएस द्वारा रविवार को आयोजित इस व्याख्यानमाला को संबोधित करते हुए जयप्रकाश विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. परमेंद्र कुमार बाजपेई ने अपने सरल एवं सारगर्भित व्याख्यान में कई दृष्टांतों को समाहित करते हुए भारतीय ज्ञान परंपरा का सिंहावलोकन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में जो प्रश्न उठाए गए हैं, उनका जबाब हमारे पुरातन गुरु-शिष्य परंपरा में है। उन्होंने अपने विषय भौतिक विज्ञान की चर्चा करते हुए गुरु की महत्ता पर प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि भौतिक विज्ञान का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत गुरुत्व की महत्ता को दर्शाता है। चंद्रमा से ज्यादा गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी में होता है, इसलिए चन्द्रमा पृथ्वी का चक्कर लगाता है जबकि सूर्य में पृथ्वी से ज्यादा गुरुत्वाकर्षण होता है इसलिए पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है। वृहस्पति सबसे भारी ग्रह है इसलिए उसे ‘गुरु’ की संज्ञा दी गई है।
कुलपति प्रो. बाजपेई जी ने कहा कि शिष्य बनने के लिए गीता का अध्ययन जरूर करना चाहिए क्योंकि इसमें इस विषयवस्तु का सटीक वर्णन किया गया है। उन्होंने जानकारी देते हुए कहा कि आज जयप्रकाश विश्वविद्यालय के सभी अंगीभूत, संबद्ध और बीएड माहाविद्यालयों में यह कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है, इसका उपस्थित जनसमूह ने करतल ध्वनि से स्वागत किया।
मुख्य वक्ता व अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय संगठन सचिव डॉ बालमुकुंद पाण्डेय जी ने अपने सारगर्भित व्याख्यान से बड़ी संख्या में उपस्थित प्राध्यापकों, शोधार्थियों व छात्र-छात्राओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनके व्याख्यान के दौरान कई अवसरों पर लोग भावुक होते भी नजर आए। डॉ पाण्डेय ने अपने संबोधन की शुरुआत हनुमान चालीसा की चौपाई ‘श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुट सुधार’ से करते हुए इसकी बड़े सारगर्भित अंदाज में व्याख्या की। उन्होंने ‘अप्प दीपो भव’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की चर्चा करते हुए कहा कि हमारे पुरातन ग्रन्थों से लेकर हर दौर में शिक्षा-संस्कृति को स्वयं को जानने-समझने का जरिया बताया गया है।
डॉ पाण्डेय ने सरल शब्दों में जीवन का सार बताते हुए कहा कि जब बच्चा पैदा होता है तो वह विश्व की किसी अन्य भाषा नहीं, बल्कि संस्कृत में कहता है-‘कोहं’, यानि मैं कौन हूँ। मृत्यु के समय जब उल्टी सांस चलने लगती है तो व्यक्ति कहता है, ‘सोहं’, अर्थात मैं वही हूँ। कोहं से सोहं की यात्रा ही जीवन है। उन्होंने कहा कि अपने गुरु के चरण की धूल से अपने चेहरे के मैल को साफ करने की बात भी हनुमान चालीसा का चौपाई में बताई गई है। हर व्यक्ति का जन्म मां के पेट से होता है और दूसरा जन्म उसे गुरु देता है। उन्होंने कहा कि आचार्य पूर्वाग्रहों से अपने शिष्य को मुक्त करता है। जिनके आचरण से हम शिक्षा ग्रहण करते हैं उन्हें ही ‘आचार्य’ की उपाधि दी गई है। उन्होंने पुरातन भारतीय संस्कृति की चर्चा करते हुए कहा कि इसी का अनुसरण कर हम विश्वगुरु बन सकते हैं।
समारोह के विशिष्ट वक्ता और एमआईटी, मुजफ्फरपुर के निदेशक डॉ मिथिलेश कुमार झा ने अपने व्याख्यान में भारतवंशियों द्वारा विश्वभर में हासिल की गई उपलब्धियों की चर्चा करते हुए कहा कि आज भारतवंशी कहीं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री बन रहे हैं तो कहीं बड़े विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर बन रहे हैं। नासा में भी 30 फीसदी से ज्यादा भारतीय इंजीनियर और वैज्ञानिक हैं। भारतवंशियों ने पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। उन्होंने शिक्षकों को शिक्षण के अतिरिक्त अन्य कार्यों से जोड़ने के कारण उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता, गवर्नेंस और मैनेजमेंट पर देशभर में चर्चा होनी चाहिए।
इनसे पूर्व व्याख्यानमाला का विधिवत शुभारंभ आगत अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलन कर किया गया। व्याख्यानमाला में कुलसचिव प्रो. नारायण दास, डॉ राजेश नायक और डॉ बैद्यनाथ मिश्र के व्याख्यान को भी लोगों ने खूब पसंद किया। व्याख्यानमाला का संचलान एनएसएस समन्वयक प्रो. हरिश्चंद्र ने किया। आगत अतिथियों का स्वागत अध्यक्ष, छात्र कल्याण डॉ उदयशंकर ओझा तथा कुलानुशासक डॉ विश्वामित्र पाण्डेय ने किया। कुलगीत और गुरुवंदना डॉ विनय मोहन बीनू के निर्देशन में अनुषा, मकेश्वर पंडित, अर्चना, मानसी, रिति और सुरुचि ने प्रस्तुत किया।