एकता मित्तल द्वारा निर्देशित गुमनाम दिन (मिसिंग डेज) एक लघु कथा फिल्म है, जो काम के लिए दूर–दराज के शहरों में पलायन करने वाले गुमनाम लोगों के माध्यम से अलगाव और लालसा के मार्मिक विषयों पर प्रकाश डालती है। मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (एमआईएफएफ– 2024) के ‘बर्लिनले स्पॉटलाइट: बर्लिनले शॉर्ट्स पैकेज‘ में शामिल यह फिल्म अलगाव को रोजमर्रा जीवन के अपरिहार्य हिस्से के रूप में देखती है। यह फिल्म बर्लिनले शॉट्स 2020 के लिए आधिकारिक चयन का हिस्सा थी। एमआईएफएफ के संबंध में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में भाग लेते हुए एकता मित्तल ने फिल्म के निर्माण और इसके द्वारा प्रस्तुत गहन कथा के बारे में जानकारी साझा की।
अपनी फिल्म की उत्पत्ति के बारे में एकता मित्तल ने कहा कि यह फिल्म 2009 में शुरू हुई एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा थी। मित्तल ने बताया कि “बिहाइंड द टिन शीट्स’ शीर्षक के तहत, हमने प्रवासी निर्माण श्रमिकों के बारे में तीन लघु फिल्में बनाईं। इन फिल्मों को पूरा करने के बावजूद, ऐसा लगा कि कुछ अभी भी अधूरा है और इसलिए यह फिल्म बनाई गई।
प्रशंसित फिल्म निर्माता ने प्रवासी श्रमिकों के जीवन की अनिश्चित प्रकृति पर भी जोर दिया, उन्होंने कहा कि उनकी पहचान अक्सर उनके परिवेश के साथ बदलती रहती है। आगे के शोध और अन्वेषण से पता चला कि पंजाबी सूफी कवि शिव कुमार बटालवी की कविता से प्रेरित होकर “बिरहा” का जन्म हुआ, जो बताता है कि अलगाव श्रमिकों के दिमाग को कैसे प्रभावित करता है। “गुमनाम दिन” इन श्रमिकों के जीवन के गुम हुए दिनों पर ध्यान केंद्रित करते हुए इससे आगे बढ़ता है और उनके अनुभवों को एक विचारोत्तेजक और अमूर्त तरीके से प्रदर्शित करता है। यह उनके नामों और आकड़ों से अलग है, जो उन्हें कमजोर बनाते हैं।
मित्तल ने आगे कहा, “ऐसे कई कारण हैं, जिनकी वजह से लोग गुमनाम होना चुनते हैं। उन्होंने कहा, “श्रमिकों के लिए, श्रमिक कॉलोनी में रहना एक अलग अनुभव है। फिल्म निर्माण की प्रक्रिया के दौरान, मैं प्रवासी श्रमिकों के परिवारों के साथ रही और मैंने देखा कि जीवन या रिश्तों में कुछ भी स्थायी नहीं है। कोविड–19 महामारी ने केवल इसकी पुष्टि की है।“
बर्लिनेल में अपने अनुभव के बारे में एकता मित्तल ने इसे अभिभूत करने वाला और विनम्रता प्रदान करने वाला बताया, उन्होंने महोत्सव की मजबूत रचनात्मक शैली की प्रशंसा की। उन्होंने इस बारे में अनिश्चितता व्यक्त की कि क्या श्रमिकों को फिल्म पसंद आई या समझ में आई, लेकिन उन्हें विश्वास था कि वे इस फिल्म से अपने को जोड़ सकते हैं।
आगे की योजनाओं के बारे में मित्तल ने कहा कि वे श्रम और प्रवास से जुड़े मुद्दों की खोज के लिए समर्पित हैं। उनकी अगली परियोजना एक राज्य के भीतर आंतरिक प्रवास पर केंद्रित होगी, जो श्रमिक मुद्दों पर उनके चिंतन को जारी रखेगी।
“गुमनाम दिन” हिंदी, पंजाबी और छत्तीसगढ़ी में प्रस्तुत 28 मिनट की फिल्म है। मित्तल ने कहा कि लघु फिल्मों की अमूर्त और काव्यात्मक प्रकृति के बावजूद, यह जरूरी नहीं कि वे छोटे बजट पर बनायी जाएँ और देखने का समय सीमित संबंध बनाता है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि फिल्मों को हमेशा सक्रियता-उन्मुख होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि वे रचनात्मक तरीकों से भावनात्मक पहलुओं का चित्रण कर सकती हैं।
हालांकि, मित्तल ने वृत्तचित्र फिल्मों के लिए घटते संसाधनों और स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म पर उन्हें बढ़ावा देने से जुड़ी चुनौतियों पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने टेलीविजन की लोकप्रियता में गिरावट को देखते हुए कहा, “अगर यह महोत्सवों में जाती है, तो इस पर ध्यान दिया जाएगा।” साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए अपनी फिल्म को कई प्लेटफॉर्म पर दिखाने की कभी ज़रूरत महसूस नहीं हुई, लेकिन जब शैक्षणिक संस्थानों और अन्य संस्थाओं से स्वतः ही स्क्रीनिंग के अनुरोध आए, तो उन्हें रोमांच का अनुभव हुआ।